सुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद।
चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद ॥
भावार्थ:- आनन्दकन्द श्री रामजी अपने महल को चले, आकाश फूलों की वृष्टि से छा गया। नगर के स्त्री-पुरुषों के समूह अटारियों पर चढ़कर उनके दर्शन कर रहे हैं ॥
जासु बिरहँ सोचहु दिन राती।
रटहु निरंतर गुन गन पाँती॥
रघुकुल तिलक सुजन सुखदाता।
आयउ कुसल देव मुनि त्राता॥
तुम कहो अयोध्या वासी
जन जन के खातिर छोड़ महल
प्रभू राम हुए वनवासी
क्या भूल हुई क्या चूक हुई
तुम कहो अयोध्या वासी
अपना लहू बहा तुझ पर
पग पग लाज बचाई
किया समर्पण निज जीवन
पर तरस न तुमको आई
फिर भी खुश थे और विवश थे
मेरे घट घट वासी
क्या भूल हुई क्या चूक हुई
तुम कहो अयोध्या वासी
एक अकेला खड़ा धनुर्धर
जनमत के सहारे थे
अपने ही घर में रघुवर
अपनों से ही हारे थे
नर सारे रावण बन बैठे
नारी मतन्थरा दासी
क्या भूल हुई क्या चूक हुई
तुम कहो अयोध्या वासी
हमने क्या जुल्म किया तुम पर
जो हमे बता नही पाए तुम
एक बार तो कह देते क्या जुल्म किए थे हम
हम तो थे देखने को घट घट के अभिलाषी
क्या भूल हुई क्या चूक हुई
तुम कहो अयोध्या वासी
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कवि - डॉ हृदयेश कुमार |